क्रिया (Kriya : Verb) से किसी कार्य के करने या होने का या किसी प्रक्रिया की स्थिति में होने का बोध होता है! क्रिया-पदबंध की रचना दो प्रकार के अंशों से मिलकर होती है! एक अंश तो वह है जो उस क्रिया पदबंध को मुख्य अर्थ प्रदान करता है! इसे मुख्य क्रिया कहा जाता है तथा मुख्य क्रिया के अलावा जो भी अंश शेष रह जाता है, वह सब सहायक क्रिया का अंश होता है! – जैसे – गीता हँस रही है! इसमें हँस – मुख्य क्रिया है, जबकि रही है – सहायक क्रिया है! अतः कह सकते हैं की क्रिया पदबंध के जिस अंश से उसके मुख्य अर्थ का पता चलता है, वही अंश मुख्य क्रिया का अंश है, शेष जो अंश बच जाता है, वह सहायक क्रिया कहलाता है!
धातु (Dhatu : Root) – यदि हम किसी क्रिया के विभिन्न रूपों को देखें – पढूंगा, पढ़ता है वगैरह, तो इसमें एक अंश समान रूप से मिलता है -‘पढ़’! इस समान रूप से मिलने वाले अंश को ‘धातु’ कहते हैं, इसे क्रिया का मूलरूप भी कहते हैं! धातु में ‘ना’ लगा देने से सामन्य रूप बनता है- जैसे – पढ़ना, दौड़ना, उठना आदि! और ‘ना’ हटा देने से धातु बन जाता है!
मूल धातु की पहचान – मूल धातु आज्ञार्थक रूप में ‘तू’ के साथ प्रयुक्त होता है! जैसे – तू कहा, तू पढ़ आदि! धातु के मुख्य भेद निम्नलिखित माने जाते हैं – १. सामान्य धातु २. व्युत्पन्न धातु ३. नाम धातु ४. सम्मिश्र धातु ५. अनुकरणात्मक धातु
१. सामन्य (मूल) धातु – वे क्रियाधातुएं जो भाषा में रूढ़ शब्द के रूप में प्रचलित हैं, मूल या रूढ़ धातु कही जाती है! मूल धातु में ‘ना’ प्रत्यय लगाकर बनाए गए रूप सामान्य धातु कहलाते हैं; जैसे – सोना, लिखना, पढ़ना आदि!
२. व्युत्पन्न धातु – जो धातुएं किसी मूल धातु में प्रत्यय लगाकर अथवा मूल धातु को अन्य प्रकार से परिवर्तित करके बनाई जाती है; उन्हें व्युत्पन्न धातु कहते हैं; पिलाना, करवाना, दिखाना आदि!
३. नाम धातु – संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण शब्दों से जो क्रिया धातुएं प्रत्यय लगाकर बनती है, उन्हें नाम धातु कहते हैं! यहाँ मुख्य प्रत्यय – ‘आ’ है; जैसे – शर्म – शर्माना, चिकना – चिकनाना, अपना – अपनाना आदि!
४. सम्मिश्र धातु – कुछ संज्ञा, विशेषण और क्रिया-विशेषण शब्दों के बाद मुख्यतया ‘करना’ अथवा ‘होना’ के संयोग से जो धातुएं बनती हैं, उन्हें सम्मिश्र धातु कहते हैं; जैसे – काम करना, कष्ट देना, मार खाना, डिंग मारना, पसंद आना आदि!
५. अनुकरणात्मक धातु – जो धातुएँ किसी ध्वनि के अनुकरण पर बनाई जाती हैं, उन्हें अनुकरणात्मक धातु कहते हैं; जैसे – भनभन – भनभनाना, टनटन – टनटनाना आदि!
मूल धातुएँ अकर्मक या सकर्मक होती है! मूल अकर्मक धातुओं से प्रेरणार्थक अथवा सकर्मक धातुएं व्युत्पन्न होती हैं! इसके विपरीत कभी कभी मूल सकर्मक धातु से अकर्मक धातुएं व्युत्पन्न होती है! जैसे – रोना – रुलाना, रुलवाना; खोलना – खुलवाना, खुलना आदि!
क्रिया के भेद (Kriya Ke Bhed : Kinds of Verb) : कर्म के आधार पर क्रिया के दो भेद होते हैं – १. अकर्मक क्रिया (Intransitive Verb) २. सकर्मक क्रिया (Transitive Verb)
१. अकर्मक क्रिया – वाक्यों की ऐसी क्रियाएँ जिन्हें कर्म की आवश्यकता नहीं होती, अकर्मक क्रियाएँ कहलाती है! जैसे – आना, चलना, भागना, रोना आदि! इस क्रिया-पद से कार्य के होने या करने का स्वतः ही पता चल जाता है तथा इसका प्रभाव सीधे कर्ता पर पड़ता है अर्थात् वाक्यों में प्रयुक्त होने पर इन क्रियाओं का फल कर्ता पर पड़ता है! जैसे -दादी ज़ाग गई! गायिका हंसती है!
अकर्मक क्रियाओं के भेद (Kinds of Intransitive Verb) – अकर्मक क्रिया दो प्रकार की होती है – (i) पूर्ण अकर्मक क्रिया (ii) अपूर्ण अकर्मक क्रिया
(i) पूर्ण अकर्मक क्रिया – जो अकर्मक क्रियाएँ पूर्ण होती है अर्थात् जिन्हें पूरकों की आवश्यकता नहीं पड़ती, उन्हें पूर्ण अकर्मक क्रिया कहते हैं! इन क्रियाओं से कर्ता की स्थिति, गति और अवस्था ज्ञात होती है! इन्हें स्थित्यर्थक/गत्यर्थक पूर्ण क्रिया भी कहते हैं! जैसे – रिंकी रो रही है, नाना जी हैं, वायुयान लन्दन जा रहा है! ये क्रियाएँ स्वयं में ही पूर्ण है! पूर्ण अकर्मक क्रियाओं में स्थानसूचक शब्द भी आते हैं जैसे – लन्दन! पूर्ण अकर्मक क्रियाओं द्वारा ‘अस्तित्व’ का बोध भी होता है! जैसे – नाना जी हैं, से नाना जी के होने का पता चलता है!
(ii) अपूर्ण अकर्मक क्रिया – जो अकर्मक क्रियाएँ स्वयं में पूर्ण नहीं होती उन्हें अपूर्ण अकर्मक क्रियाएँ कहते हैं! in क्रियाओं का कर्ता से संबंध बनाने के लिए किसी न किसी संज्ञा या विशेषण शब्द की आवश्यकता पड़ती है! जैसे – मोहन डॉक्टर बनेगा, साईकिल ख़राब है, फिल्म पारिवारिक है! इसमें पूरक शब्द डॉक्टर, पारिवारिक वगैरह है! अपूर्ण अकर्मक क्रियाएँ प्रायः बनना, निकलना और होना प्रमुख होती है! पूरक शब्द प्रायः संज्ञा और विशेषण होते हैं!
२. सकर्मक क्रिया – वाक्यों की ऐसी क्रियाएँ जिन्हें कर्म की आवश्यकता होती है, उन्हें सकर्मक क्रिया कहते हैं! सकर्मक क्रिया का फल कर्म पर पड़ता है! जैसे – मदन ने गणित पढ़ाया, सुरेश ने कंप्यूटर ख़रीदा आदि! यदि वाक्य में कर्म उपस्थित न भी हो, किंतु क्रिया को उसकी अपेक्षा हो तो वह सकर्मक क्रिया ही होगा! जैसे – नमन पढ़ता है, सौम्या खा रही है!
सकर्मक क्रिया के भेद – सकर्मक क्रिया के तीन भेद होते हैं – (i) एककर्मक सकर्मक क्रिया (ii) द्विकर्मक सकर्मक क्रिया (iii) अपूर्ण सकर्मक क्रिया
(i) एककर्मक सकर्मक क्रिया – ऐसी सकर्मक क्रियाएँ जिनका एक ही कर्म होता है, उन्हें एककर्मक क्रिया कहते हैं, जैसे – मोहिनी ने पुस्तकें खरीदीं, हम बिड़ला मंदिर देखेंगे!
(ii) द्विकर्मक सकर्मक क्रिया – ऐसी सकर्मक क्रियाएँ जिनके दो कर्म होते हैं, उन्हें द्विकर्मक सकर्मक क्रिया कहते हैं, जैसे – रमेश ने सुरेश को गणित पढ़ाया, रेशमा ने दुकानदार से चीनी ख़रीदे आदि! द्विकर्मक क्रियाओं का एक कर्म सजीव और दूसरा निर्जीव होता है! इनमें निर्जीव कर्म प्रमुख होता है तथा सजीव गौण!
(iii) अपूर्ण सकर्मक क्रिया – ऐसी सकर्मक क्रियाएँ जिनमें कर्म रहने पर भी अर्थ अपूर्ण लगते हैं, उन्हें अपूर्ण सकर्मक क्रिया कहते हैं! अपूर्ण सकर्मक क्रिया में कर्म से संबंधित एक पूरक शब्द की आवश्यकता रहती है! जैसे – सुकन्या दीपिका को बहन नहीं समझती! इसमें बहन पूरक शब्द है!
अकर्मक और सकर्मक क्रियाओं में अंतर –
(i) अकर्मक क्रियाओं को कर्म की आवश्यकता नहीं होती! सकर्मक क्रियाओं को कर्म की आवश्यकता होती है!
(ii) वाक्य की क्रिया के साथ ‘क्या’ लगाकर प्रश्न करें! यदि उत्तर में निर्जीव संज्ञा होती है तो वह क्रिया सकर्मक होती है!
(iii) वाक्य की क्रिया के साथ ‘क्या’ लगाकर प्रश्न करें, यदि उत्तर में संज्ञा शब्द नहीं मिलता है तो क्रिया अकर्मक होती है! अकर्मक क्रिया में कुछ स्थितियों में प्रश्न नहीं बनता!
(iv) कुछ क्रियाएँ सदा सकर्मक होती है और कुछ सदा अकर्मक होती है! वाक्य में कर्म रहने पर भी क्रियाएँ अकर्मक हो सकती है; जैसे – माँ पुत्री को समझाती है, पारुल दूध पीती है! इन वाक्यों की क्रियाएँ समझाना और पीना सदा सकर्मक रहती है!
(v) वाक्यों में आने वाले संज्ञा शब्द कर्म का कार्य नहीं करते! कई बार ये शब्द स्थानवाचक क्रिया-विशेषण का रूप ले लेते हैं! इसलिए ऐसे वाक्यों की क्रियाएँ अकर्मक रहती है; जैसे – महेश भोपाल चला गया! इसमें भोपाल संज्ञा होने पर भी स्थानवाचक क्रिया विशेषण का कार्य कर रहे हैं! अतः इन वाक्यों की क्रियाएँ अकर्मक हैं!
संरचना के आधार पर क्रिया के भेद – संरचना के आधार पर क्रिया के तीन भेद होते हैं – १. प्रेरणार्थक क्रिया २. संयुक्त क्रिया ३. समापिका – असमापिका क्रिया
१. प्रेरणार्थक क्रिया (Causal Verb) – ऐसी क्रियाएँ जिन्हें कर्ता स्वयं नहीं करता अपितु दूसरों से कराता है या करने की प्रेरणा देता है, उन्हें प्रेरणार्थक क्रिया कहते हैं! जैसे – अश्विनी क्लर्क से पत्र टाइप कराता है! इसमें दो कर्ता होता है – (i) प्रेरक कर्ता – ऐसे कर्ता जो कार्य करने की प्रेरणा देते हैं, उन्हें प्रेरक कर्ता कहते हैं! (ii) प्रेरित कर्ता – ऐसे कर्ता जो प्रेरणा ग्रहण करके कार्य करते हैं, उन्हें प्रेरित कर्ता कहते हैं!
प्रेरणार्थक क्रिया के भेद – (i) प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया (ii) द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया
(i) प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया – ऐसी क्रियाएँ जिनमें कर्ता शामिल होकर दुसरे को कार्य करने की प्रेरणा देता है, उन्हें प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया कहते हैं, जैसे – पल्लवी पारुल को सुलाती है, मदारी भालू को नचाता है!
(ii) द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया – ऐसी क्रियाएँ जिनमें कर्ता स्वयं सम्मिलित न होकर दूसरों को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, उन्हें द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया कहते हैं! ये क्रियाएँ द्विकर्मक क्रियाएँ होती हैं, जैसे – अधयापक महेश से कहानी सुनवाता है, गगन बहू से फोन करवाता है!
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२. संयुक्त क्रिया (Compound Verb) – वाक्य में क्रिया पद के भीतर एक से अधिक क्रियाएँ भी आती है; जैसे – दिखाई दिया, बैठ गई आदि! इन क्रिया पदों को संयुक्त क्रिया कहते हैं! इनमें दिखाई, बैठ मूल क्रियाएँ हैं जो कोशीय अर्थ देती है! दिया, गई क्रियाएँ रंजक क्रियाएँ हैं, जो कोशीय अर्थ को रंजित करती हैं अर्थात् विशेष अर्थच्छाया देती है! इस प्रकार दो स्वतंत्र अर्थ देने वाली क्रियाएँ जब मुख्य क्रिया और रंजक क्रिया के रूप में एक साथ मिल जाती है तब उन्हें संयुक्त क्रिया कहते हैं!
रंजक क्रिया – ऐसी क्रियाएँ जो प्रमुख क्रिया के प्रभाव में वृद्धि करती है, रंजक क्रिया कहलाती है! रंजक क्रिया प्रमुख क्रिया के पश्चात आती है!
संयुक्त क्रिया के अन्य लक्षण –
(i) कहीं कहीं संयुक्त क्रिया के दोनों पदों का क्रम तथा रूप बदलने पर अर्थ में परिवर्तन आ जाता है!
(ii) निषेधात्मक वाक्यों में मुख्य क्रिया के साथ रंजक क्रिया नहीं लगती; जैसे – सुरेश ने काम कर लिया – सुरेश में काम नहीं किया!
(iii) संयुक्त क्रिया में ‘सकना’ और ‘चुकना’ जैसी क्रियाएँ रंजक क्रिया के रूप में प्रयुक्त होती है! वास्तव में ये रंजक क्रियाएँ नहीं हैं और न ही इनका कोई स्वतंत्र अर्थ होता है! किंतु ये मुख्य क्रिया के साथ जुड़कर क्रिया के सामर्थ्य, पूर्णता आदि का बोध कराती है; जैसे – गणेश यह काम कर सकता है!
३. समापिका क्रिया और असमापिका क्रिया –
समापिका क्रिया – सरल वाक्य में जो क्रिया वाक्य को समाप्त करती है और प्रायः वाक्य के अंत में रहती है, उसे समापिका क्रिया कहते हैं! जैसे – सचिन खिलाड़ी है! मैं पत्र लिखूंगा!
असमापिका क्रिया – वाक्य में जो क्रिया विधेयगत क्रिया के स्थान पर प्रयुक्त न होकर अन्य स्थान पर प्रयुक्त होती है, उसे असमापिका क्रिया कहते हैं! इन्हें कृदंती रूप भी कहा जाता है! यह क्रिया समापिका क्रिया के लिए निर्धारित स्थान पर प्रयुक्त नहीं होती है! जैसे – प्रशांत ने घर आकार भोजन किया!
कृदंत मुख्यतः निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –
(i) अपूर्ण कृदंत (ii) पूर्ण कृदंत (iii) पूर्वकालिक कृदंत (iv) कृदंतीय संज्ञा (v) कृदंतीय क्रिया-विशेषण (vi) कर्तावाचक कृदंत (vii) तात्कालिक कृदंत
कृदंत क्रिया (Suffix-ending Verb) – क्रिया के अंत में प्रत्यय लगाकर जो क्रियाएँ बनती है, उन्हें ‘कृदंत क्रिया’ कहते हैं; जैसे – उड़+ई=उड़ी!
कृदंत क्रिया के भेद – (i) वर्तमान की कृदंत क्रिया (ii) भूतकाल की कृदंत क्रिया (iii) पूर्वकालिक कृदंत क्रिया (iv) तात्कालिक कृदंत क्रिया
(i) वर्तमानकालिक कृदंत क्रिया – मूल क्रिया में ता, ती, ते प्रत्यय लगाकर वर्तमानकालिक कृदंत क्रियाएँ बनाई जाती है, इन क्रियाओं द्वारा वर्तमान काल का बोध होता है! जैसे – उग+ता=उगता!
(ii) भूतकालिक कृदंत क्रिया – मूल क्रिया में आ, ई, ईं, ए प्रत्यय लगाकर भूतकालिक कृदंत क्रियाएँ बनाई जाती है! इन क्रियाओं द्वारा वर्तमान काल का बोध होता है! इन क्रियाओं को पूर्ण कृदंत भी कहा जाता है! जैसे – ज़ाग+ए=जागे!
(iii) पूर्वकालिक कृदंत क्रिया – मूल क्रिया में कर प्रत्यय लगाकर पूर्वकालिक कृदंत क्रिया बनाते हैं, यह मुख्य क्रिया से पहले आती है! जैसे – सुषमा पढ़कर परिक्षा देने गई!
(iv) तात्कालिक कृदंत क्रिया – मूल क्रिया में ते प्रत्यय लगाकर तात्कालिक कृदंत क्रिया की रचना की जाती है! इस क्रिया के तुरंत बाद ही शब्द का प्रयोग किया जाता है! जैसे – पतंग उड़ाते ही कट गई!
भावसूचक क्रिया – जिन क्रियाओं के द्वारा कार्य की संभावना, संदेह, संकेत, आज्ञा और निश्चय का बोध होता है, उन्हें भावसूचक क्रिया कहते हैं! इन्हें वृत्ति, अर्थ और रीती भी कहते हैं! भावसूचक क्रिया के प्रमुख भेद –
(i) निश्चय सूचक – क्रिया के जिस रूप से कार्य के निश्चय का बोध होता है, उसे निश्चय सूचक कहते हैं, जैसे – गीता भाई के साथ गोरखपुर गई!
(ii) संभावना सूचक – क्रिया के जिस रूप से कार्य के होने की संभावना का बोध होता है, उसे संभावना सूचक कहते हैं, जैसे – आज शायद उत्तर पुस्तिकाएँ मिलें!
(iii) संदेह सूचक – क्रिया के जिस रूप से कार्य के होने के संबंध में संदेह हो, उसे संदेह सूचक कहते हैं, जैसे – दादी घर पहुँच चूकी होगी!
(iv) संकेत सूचक – जिन क्रियाओं के कार्य कारण संबंध होता है, उन्हें संकेत सूचक कहते हैं; जैसे – रीमा झगड़ा करेगी तो पछताएगी!
(v) आज्ञा सूचक – जिन क्रियाओं से आज्ञा, स्वीकृति, चेतावनी, इच्छा, अनुरोध और उपदेश आदि का बोध होता है, उसे आज्ञा सूचक कहते हैं; जैसे – फाइल रखकर चले जाओ, कृपया हमारे पास आइए!
क्रिया के कुछ अन्य भेद –
(i) नामिक क्रिया/ नामधातु क्रिया – नामिक क्रियाओं में आने वाली धातुएं नामधातु कही जाती है! संज्ञा, सर्वनाम तथा विशेषण शब्दों में प्रत्यय लगाकर जो क्रियाएँ बनती हैं, उन्हें नामिक या नाधातु क्रिया कहा जाता है; जैसे शरम से शरमाना, फिल्म से फिल्माना आदि!
(ii) सहायक क्रियाएँ (Auxiliary Verb) – वाक्य में मुख्य क्रिया को छोड़कर क्रिया का जो भी अंश शेष रह जाता है, वह सहायक क्रिया का होता है; जैसे – चोर भाग गया!
(iii) पूर्वकालिक क्रिया – मुख्य क्रिया से पूर्व होने वाली क्रिया पूर्वकालिक क्रिया कहलाती है! इसमें कर का प्रयोग होता है; जैसे – मैं नहाकर पढूंगा!
(iv) संयोजी क्रियाएँ – ये क्रियाएँ मुख्य क्रिया के पक्ष, वृत्ति तथा वाच्य की सूचना प्रदान करती है; जैसे – अब वह पढ़ने लगा है, सोहन बहुत रो रहा है, किताब पढ़ी जा रही है!
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