पाकिस्तान और भारत ने अपने उन परमाणु ठिकानों की सूची एक दूसरे को सौंप दी है जिन पर युद्ध की स्थिति में हमला नहीं किया जा सकता है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि युद्ध की स्थिति में गलती से अनजाने में कोई भी एक देश दुसरे देश के परमाणु ठिकाने पर हमला न क्र बैठे और स्थिति भयावह हो जाए।
भारत और पाकिस्तान दोनों देश तीन दशकों से अधिक समय से ऐसा कर रहे हैं। इसके पीछे की वजह है, जाने या अनजाने में होने वाले किसी भी परमाणु खतरे से बचने के लिए दोनों देशों के बीच हुआ एक समझौता है, जिसके तहत दोनों को यह सूची देनी होती है। दोनों देशों को एक दुसरे के परमाणु ठिकानों की जानकारी रहे, ताकि झड़प, तनाव या युद्ध की स्थिति में इन ठिकानों पर हमला करने से बचा जा सके। 31 दिसंबर 1988 को हस्ताक्षरित एक समझौते के तहत परमाणु ठिकानों और यंत्रों के खिलाफ हमलों के निषेध किया जाता है। वहीं, 27 जनवरी 1991 को हुए समझौते के अनुच्छेद- II के प्रावधानों के अनुसार इन ठिकानों की सूचियों का आदान-प्रदान किया जाता है।
समझौते के तहत, पाकिस्तान ने परमाणु ठिकानों और यंत्रों की सूची को इस्लामाबाद स्थित विदेश मंत्रालय में भारतीय उच्चायोग के एक प्रतिनिधि को आधिकारिक तौर पर सौंपी दिया। इसके साथ ही, भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी नई दिल्ली में पाकिस्तान उच्चायोग के एक प्रतिनिधि को परमाणु प्रतिष्ठानों और सुविधाओं की अपनी सूची सौंप दी।
ये समझौता तब और भी ज्यादा अहम हो जाता है, जब दोनों देशों के बिच कई युद्ध हो चुके हैं, और आतंकवाद को लेकर लगातार तनाव बना रहता है, और अक्सर पाकिस्तान के नेता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों से परमाणु बम की शेखी बघारते रहते हैं। ऐसे में इस तरह के समझौते अहम हो जाते हैं, जो मानवीय मूल्यों की रक्षा कर सके। लेकिन इस समझौते का एक कमजोर कुटनीतिक कड़ी है चीन का पाकिस्तान से घनिष्टता। पाकिस्तान इस समझौते से प्राप्त जानकारियों को चीन के साथ शेयर कर सकता है। इसके बावजूद, मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए, इंसानियत को जिंदा रखने के लिए इस तरह समझौते सार्थक हैं।