Hobosexuality | होबोसेक्सुअलिटी आधुनिक जीवनशैली, नए ज़माने का रिश्ता, मॉडर्न प्यार या फिर घर के किराए की व्यवस्था? | होबोसेक्सुअलिटी (Hobosexuality) एक ऐसा पाश्चात्य ट्रेंड है जिसका चलन आज भारत के महानगरों में बेहद तीव्र गति से हो रहा है. मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु जैसे महानगरों में ये चलन आम हो चूका है. कुछ लोग इसे आधुनिक जीवन शैली कह रहे हैं तो कुछ लोग इसे लिव इन रिलेशनशिप भी कहते हैं. हालाँकि होबोसेक्सुअलिटी (Hobosexuality) लिव इन रिलेशनशिप से थोडा अलग है, जिसे समझाने की जरुरत है. भारत के बड़े शहरों में तेजी से बढ़ रहा ये चलन भारत की सामाजिक व्यवस्था को भी तेजी से बदल रहा है.
होबोसेक्सुअल शब्द मूल रूप से पश्चिमी इंटरनेट कल्चर से उभरा है, जिसका इस्तेमाल बोलचाल की भाषा में ऐसे इंसान के लिए किया जाता है जो खास तौर से रहने की जगह हासिल करने के लिए डेटिंग करता है या रिश्ता बनाता है. अर्थात होबोसेक्सुअलिटी एक ऐसा रिश्ता है जिसमें कोई इंसान घर और वित्तीय मदद के लिए किसी रोमांटिक रिश्ते में आता है. अगर खुले शब्दों में कहें तो इस तरह के रिश्ते प्रेम या सामाजिक न होकर विशुद्ध आर्थिक और रणनीतिक होता है.
अगर हम भारत के सांस्कृतिक परिपेक्ष में इस तरह के रिश्ते को देखें तो होबोसेक्सुअलिटी जैसे शब्द अपने आप में थोडा असहज जैसा लगता है, लेकिन जो हकीकत है, उससे आँख बंद करना या इसे हल्के में लेना सही नहीं होगा. क्योंकि आज यह ट्रेंड भारत के शहरी क्षेत्र में चुपचाप और बहुत तेजी से उभर रहा है. हम भी उसी समाज का हिस्सा है जिसमें आज होबोसेक्सुअलिटी जैसा रिश्ता फल फुल रहा है.
भारत की संस्कृति में पहले अरेंज मैरिज का ही चलन था, लेकिन बदलते वक्त के साथ 80-90 के दशक में प्रेम विवाह का चलन बढ़ा और जातियों के बंधन टूटने लगे. फिर पिछले दो दशक में लिव इन रिलेशन का दौर चल पड़ा. बदलते परिस्थिति, सामाजिक बंधन और क़ानूनी दबाव के चलते, नई पढ़ी की उन्मुक्त सोच के युवाओं ने, किसी भी प्रकार के बंधन में बंधने से बचते हुए, लिव इन रिलेशनशिप को अपने सामाजिक जीवन का हिस्सा बनाया. वहीँ अब बदलती आर्थिक परिस्थिति और महानगरों की दमतोड़ महंगाई में अब नया ट्रेंड भारत के शहरी समाज का हिस्सा बनने लगा है जिसे होबोसेक्सुअलिटी कहते हैं.
होबोसेक्सुअलिटी और लिव इन में क्या है अंतर?
दरअसल लिव इन में जहाँ दो कपल प्रेम तो करते हैं लेकिन बिना विवाह के या बिना किसी बंधन या स्थाई कमिटमेंट के एक साथ रहना स्वीकार करते हैं, वहीँ होबोसेक्सुअलिटी का आधार प्रेम न होकर आर्थिक होता है. होबोसेक्सुअलिटी में महानगरों के बढ़ते खर्च और घरों के महंगे किराए के बोझ को कम करने के लिए कपल एकसाथ रहना स्वीकार करते हैं.
होबोसेक्सुअलिटी (Hobosexuality) जैसे रिश्ते के तेजी से बढ़ने के पीछे की वजह क्या है?
दरअसल मुंबई, बेंगलुरु या दिल्ली जैसे महानगरों में काम कर रहे पेशेवर वयस्कों के लिए शहरों में घर खरीदना तो दूर, किराया चुकाना तक काफी मुश्किल होता है. किराया चुकाने में ही उनकी मासिक आय का आधा हिस्सा खर्च हो जाता है। अगर Deloitte द्वार की गई 2025 Gen Z and Millennial Work Survey की बात करें तो यह बताती है कि 2025 में मिलेनियल और जेन जी के 50 प्रतिशत से ज्यादा कर्मचारी बड़ी मुश्किल से महीने का खर्चा चला पा रहे हैं और उनकी सेविंग न के बराबर है. महानगरों में आवास की लागत अक्सर एक व्यक्ति की आय का 40 से 50 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा निगल जाती है. मुंबई जैसे शहर में एक बेडरूम फ्लैट का मासिक किराया कई हाई प्रोफाइल इलाकों में 35,000 से 50,000 तक है. ऐसे में महंगे किरायों के साथ-साथ अकेले रहने की लागत और शहरी जीवन की भावनात्मक अकेलापन, ये सब मिलकर होबोसेक्सुअलिटी जैसे एक नई तरह की रिलेशनशिप ट्रेंड को जन्म दे रहे हैं. इस बात को कहने में थोड़ी असहजता जरुर होती है लेकिन ये सच्चाई है की महानगरों में काफी लोग प्रेम की वजह से कम और रहने की जगह के लिए ज्यादा रिश्तों में आ रहे हैं. ऐसे लोग अक्सर सीरियल डेटर्स होते हैं, जिनका कोई दीर्घकालिक रिश्ते का कोई इरादा नहीं होता।
अब अगर आर्थिक खर्चों के बोझ को कम करने, घर बसाने के सामाजिक दबाव, अपने संघर्ष और उपलब्धियों का दिखावा करने और दूसरों पर एहसान करने की भावना को एकसाथ जोड़ लें, तो एक ऐसा माहौल तैयार होता है, जो होबोसेक्सुअलिटी को पनपने और फलने फूलने का अनुकूल माहौल देता है. इस तरह के रिश्ते काफी सुविधाजनक और आकर्षक तो लगते हैं लेकिन दूसरी तरफ ये खतरनाक भी होते हैं, क्योंकि इसमें आप सिर्फ किराया नहीं दे रहे होते, बल्कि साथ रहने के भ्रम में भी जी रहे होते हैं. जैसे-जैसे होबोसेक्सुअलिटी के रोमांटिक पहलु सामने आते हैं, भावनात्मक दुविधाएँ भी उभरती हैं। हालाँकि सच्चा प्यार ऐसी परिस्थिति में भी पनप सकता है, लेकिन भावनात्मक भ्रम, सामाजिक विसंगति और भविष्य की दुविधा कभी-कभी असुरक्षा, आक्रोश, निर्भरता और अपराध की भावनाओं को जन्म दे सकता है।
इतना ही नहीं, ऐसे रिश्तों में भावनात्मक और आर्थिक संतुलन भी बिगड़ जाता है, जिससे पावर इंबैलेंस और मानसिक परेशानी बढ़ती है. यह सिर्फ आर्थिक मजबूरी का मामला नहीं, बल्कि भावनात्मक हेरफेर और रिश्तों में शक्ति-संतुलन का भी मामला है. यह रिश्ता ऊपर से तो प्यार भरा लगता है, लेकिन अंदर से एक पार्टनर दूसरे पर ज्यादा निर्भर रहता है. लंबे समय तक ऐसे रिश्तों में रहने से एक व्यक्ति की बचत और वित्तीय स्थिरता पर भी असर पड़ता है. और जब एक पार्टनर बार-बार जिम्मेदारियां निभाता है, और दूसरा सिर्फ सुविधा लेता है, तो रिश्ते में उबाऊपन और नाराज़गी बढ़ती है. जिस पर निर्भरता होती है, वही फैसलों में हावी हो जाता है, और दूसरा पार्टनर भावनात्मक रूप से खुद को कमजोर और असहज महसूस करता है. अंततः यह रिश्ता वैचारिक भावनात्मक और आर्थिक बोझ बन जाता है, और समय के साथ टॉक्सिक भी हो जाता है।
न तो हम बदलते आर्थिक और अमाजिक परिवेश को नकार सकते हैं, और न ही रिश्तों की बदलती परिभाषा को नकार सकते हैं. फिर इस नई पारिस्थि में एक स्वास्थ्य रिश्ता बने और प्रेम से चले, इसके लिए समाधान क्या है? तो इसके लिए कुछ ख़ास बातों का ध्यान रखें! आप भले ही लिव इन रिलेशन में हों या होबोसेक्सुअल रिलेशन में हो, लेकिन इस बात का ध्यान रखें की पार्टनर का आर्थिक योगदान बराबर नहीं हो तो बिलकुल नगण्य भी न हो. आपके पार्टनर की दिलचस्पी आपकी प्रॉपर्टी या पैसे के बजाय आपमें हो. रिश्ते में आर्थिक पारदर्शिता रखने के साथ यह भी देखें की आपके भावनात्मक जरूरत के समय आपके पार्टनर का रवैया और उपस्थति कैसा है. रिश्ते में दोनों को भावनात्मक और व्यावहारिक योगदान देना चाहिए. आर्थिक और भावनात्मक रूप से खुद को मजबूत बनाएं, ताकि किसी पर मजबूरी में निर्भर न होना पड़े. यदि कभी भी ऐसा महसूस हो रहा है कि रिश्ता एकतरफा हो रहा है, तो या तो सीमाएं तय करें या फिर ऐसे रिश्ते को न कहना सीखें.
होबोसेक्सुअलिटी के टॉपिक पर चर्चा करने के पीछे हमारा उद्देश्य इसकी निंदा करना या महानगरों में आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहे लोगों को शैतान बताना नहीं है. हमारा उद्देश्य बदलते सामजिक परिवेश में भी एक सामजिक संतुलन और स्वस्थ रिश्ते बनाए रखना और संभावित डिप्रेशन से लोगों को आगाह करना है. ताकि रिश्तों के बदलते सामजिक स्वरुप को अपनाने पर भी वो सजग और खुशहाल रहें. रिश्ते सिर्फ सुविधा पर नहीं, बल्कि बल्कि सम्मान, प्रेम, समानता, जागरूकता और भविष्य की संभावना पर भी आधारित हो. अगर आप शहरी जीवन में डेटिंग कर रहे हैं, तो रिश्ते में योगदान और संतुलन को लेकर शुरुआत से स्पष्ट रहें। क्योंकि प्यार का मकसद केवल साथ रहना नहीं, बल्कि साथ निभाना है। प्यार का मतलब आश्रय देना हो सकता है, लेकिन उसे एकतरफा जिम्मेदारी में बदलना, किसी के लिए भी सेहतमंद नहीं है.