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Home विचार

पर्यावरण संरक्षण में मिथकों की सहभागिता

by Pallavi Mishra
14 October 2018
in विचार
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एक प्रिंसटन स्कॉलर और सैनिक रॉय स्क्रेनतों ने अपने निबंध, “लर्निंग हाऊ टू डाई इन द एनथ्रोपोसिन”2013, में लिख डाला कि “यह सभ्यता मृत हो चुकी है” और इस बात पर जोर दिया कि आगे बढ़ने का एक रास्ता यह जान लेना भी है कि अब कुछ भी नहीं बचा जिससे हम ख़ुद को बचा सकते हों। इसलिए हमें बिना किसी मोह या डर के कठिन कदम उठाने की आवश्यकता है। “मेक द न्यू, रिकार्व इट फ्रॉम द ओल्ड”,अपने निबंध में यह संदेश देते हैं रॉय।

 

यहाँ यह संदेश पास्ट की ओर आशापूर्ण हो कर देखने की बात करता दिखता है ताकि ऐसे चिन्हों और संदेशों की प्राप्ति हो सके जिससे मानव सभ्यता सस्टेन कर सके, सभ्यताएँ निःसंदेह ही प्रकृति पर अपना आधिपत्य खोती जा रही हैं और बदलते प्राकृतिक परिदृश्य में मनुष्य अब,वल्नरेबल है,कमज़ोर है और प्रकृति उसे बड़े पैमाने पर नष्ट करने लगी है। औधोगिक क्रांति के बाद से ही प्रकृति का डीवेलुशन यानी उसे बेहद कमतर आँकने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह थमा ही नहीं और स्थिती यह आ गई कि अब मनुष्यों को बचाना और सुरक्षित रख पाना कठिन होता जा रहा है।

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“ग्लोबल एलीट” कहे जाने वाले लोगों ने जिनमें मुख्यतः वैज्ञानिक, उधोगपति, व्यापारी और राजनेता आते हैं,इन्होने कभी आम लोगों की सहमति की परवाह नहीं की, किसी भी भू-भाग को तोड़ने, बदलने, हटाने या मिटाने से पहले। एशिया और अफ्रीका का पुरातन समाज केवल कुरीतियों से जकड़ा है,यह कह कर अवहेलना करने वाले वर्ग ने कभी उनकी जीवन- पद्वति की बात न जाने क्यों नहीं की, बल्कि उन्हें मिथिकीय, कर्म-काण्डों के पाखंड से घिरे होने का आरोप लगा नकार दिया। प्रकृति का संरक्षण, अगर मानव समाज ने एक उद्देश्य की तरह अब नहीं किया तो यह सभ्यता पर भारी पड़ने वाला है। यह समय की माँग है कि “गार्डेनेड एनथ्रोपोसिन” को बचाने के लिए इन मिथकों की मदद ली जाए।

 

मिथक और उनकी महत्वपूर्णता पर ज़्यादा न कहते हुए, उत्तराखंड के केदारनाथ त्रासदी की बात की जाए, क्योंकि त्रासदियों को भुला देना हमारे भविष्य के लिए त्रासद हो सकता है। जैसे ही यह आपदा आई थी,पूरे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर, खासकर व्हाट्सएप्प आदि पर जो बातें होने लगीं, वह आम लोगों की मान्यताओं से प्रेरित रहीं। यह बातें की गईं कि पवित्र स्थानों पर अत्यधिक मानवीय गतिविधियों ने ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया। आम-जन बार-बार यह जताने की कोशिश करता रहा कि अपवित्रीकरण और उल्लंघन की वजह से यह त्रासदी हुई है।

 

पर्वतीय समूह के लोगों की व्यथा उनके शब्दों से झलक जाती और वे अपने को असहाय पाते कि वे शासन, प्रशासन, व्यवस्था या फिर पढ़े-लिखों को समझा नहीं पा रहे और कोई उन्हें सुनने को तैयार भी नहीं। उन्हें लगा था कि वैज्ञानिक तथ्य और तर्क-परस्त लोग कितने स्वार्थी और संवेदनहीन हैं, जिन्हें उनकी आस्थाओं से कोई लेना-देना नहीं। स्थानीय लोगों ने प्रशासन, सामाजिक कार्यकर्ताओं,अभियंताओं, पर्वतारोहियों और तीर्थयात्रियों सभी के लिए यह कह कर चेताया था कि ”जब तक वह हमारे मान्यताओं को अनदेखा करते रहेंगे, तब तक इस तरह का विनष्टीकरण और भी होता रहेगा।”

 

हालाकिं इस त्रासदी में केदारनाथ की पवित्र स्थली पूरी तरह तबाह हो गई, पर इस पर लोगों की आस्था और ज़्यादा गहरा गई। यहाँ धारी देवी से जुड़ी मान्यता और सुदृढ़ हो गई, जिनकी मूर्ति को उसके स्थान से हटाया गया और जिसके हटाते ही बादल फटने की घटना हो गई। आम-जन इन्हें काली का प्रस्फुटन मानते हैं,जिन पर चारों धामों की रक्षा का दायित्व है। आस्थावानों के अनुसार, उत्तराखंड को इस देवी के कोप का भाजन बनना पड़ा, जिसके ज़िम्मेदार आम-जन तो बिल्कुल भी नहीं थे। उनके अनुसार देवी को उनके मूल स्थान से हटाया गया ताकि एक 330 MW का hydel प्रोजेक्ट बनाया जा सके।

 

स्थानीय इतिहासकारों के अनुसार इसी तरह का कदम 1882 में एक स्थानीय राजा ने भी उठाया था जिसकी वजह से केदारनाथ की भूमि भूस्खलन के कारण सपाट हो गई। Alaknanda Hydro Power Company Ltd ने जब इस hydel प्रोजेक्ट को बनाने की बात कही थी, तभी स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया था यह कह कर कि देवी को उनके मूल-स्थान से हटाया नहीं जा सकता। इस प्रोजेक्ट से बना बाँध द्वीप को बहा देगा।

 

आम मान्यता के अनुसार देवी के विग्रह का ऊपरी हिस्सा काली का है और उनके नीचे का हिस्सा गुप्तकाशी के कालीनाथ मंदिर में स्थित है,जिसकी पूजा श्री-यंत्र की तरह होती है। लोगों के अनुसार देवी का रूप दिन भर में बदलता रहता है, यानी वह सुबह एक तरुणी की तरह दिखती हैं और रात होते-होते एक वृद्ध स्त्री। दोनों मंदिरों में दर्शन के बाद ही दर्शन पूर्ण माना जाता है।

 

प्लान यह था कि द्वीप के ऊपरी हिस्से को काटकर उसे एक ऊँचे स्थान पर रख दिया जाए। लेकिन पर्याप्त तंत्र के अभाव में इसे स्थगित कर यह निर्णय हुआ कि विग्रह का वह हिस्सा, जो ऊपर से दिखता है, उसे शिफ़्ट कर दिया जाएगा। पर्यावरण और वन मंत्रालय के विरोध के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कार्य के लिए सहमति दे दी और फिर जून 16 रविवार के दिन सुबह 7:30 बजे अधिकारी पूरी तरह से लैस होकर मंदिर परिसर में पहुँचे। विग्रह का ऊपरी हिस्सा तीन पुजारियों और दो स्थानीय लोगों की मदद से काटा गया, उसे उठा कर एक प्लेटफ़ॉर्म पर रखा गया, जो देवी की अब नई जगह थी। जैसे ही विग्रह को उठाया गया, केदारनाथ में घनघोर बारिश के साथ बादल फटने की घटना हुई और फिर यह त्रासदी।

 

इस त्रासदी का कारण देवी का प्रकोप था यह नहीं, कहा नहीं जा सकता, पर जन-चेतना ने इसे यही माना और अपना पूरा रोष शासन और AHPCL के अधिकारियों पर निकाला। धारी- देवी से जुड़ी यह धारणा मैंने मिथक को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बिल्कुल भी नहीं कही।मेरा उद्देश्य यह कहना है कि जो मिथक, कर्म-काण्ड प्रकृति के संरक्षण से जुड़े हैं, पहाड़ों को काटने, गिराने आदि से रोकते हैं उंन्हे अगर जन-मानस में बने रहने दिया जाए, तो यह सहज ही संरक्षण की ओर उठा एक प्रभावकारी कदम होगा। केदारनाथ त्रासदी को जहाँ पर्यावरणविद मानव-निर्मित त्रासदी मानते रहे, geologists ने माना कि अगर आवाजाही के नियम कठोर होते, तो क्षति इतनी नहीं हुई होती।उनका कहना था कि मानव का बढ़ता हस्तक्षेप, तीर्थस्थल का व्यवसायीकरण,बढ़ता प्रदूषण आदि कारण रहे।

 

इन सारे तर्कों और कारणों पर आम लोगों ने मंदिरों की पवित्रता का ध्यान न रखा जाना कारण माना और प्रशासन और सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया। मिथक सामाजिक होते हैं,ये किसी एक व्यक्ति की गतिविधि नहीं होते बल्कि इसमें सभी की समान भागीदारी होती है। अगर इस सामूहिक भागीदारी को मिथकों के आधार-शिला पर सुदृढ़ किया जाए, तो पृथ्वी को सहेजना आसान होने लगेगा। Bioregionalism को बढ़ावा देना लोगों को ज़्यादा ज़िम्मेदार बनाता है बजाय cosmopolitanism के।

 

मिथक आदर्शों के भीतर त्वरित क्रियान्वयन की चेष्टा भर देते हैं। उदाहरणतः, बुग्यालों में ज्यादा तेज चलने और बोलने की मनाही उनके प्राकृतिक संरक्षण की सहज प्रक्रिया बन जाता है। ज़रूरत है कि लोक-आस्था को वैश्विक-आस्था बनने दिया जाए, यह जानते और मानते हुए भी कि यह मिथकीय है। वह मिथकीय होते हुए भी जीवन से परिपूर्ण है और समय की यही आवश्यकता है।

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